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विकसित भारत 2047' की संकल्पना भारत सरकार के व्यापक दृष्टिकोण की योजना का हिस्सा है, जिसका लक्ष्य अपनी स्वतंत्रता की 100वीं वर्षगांठ के अवसर पर वर्ष 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र में बदलना है। विकसित भारत 2047'' की संकल्पना में आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, पर्यावरणीय स्थिरता और सुशासन सहित विकास के विभिन्न आयामों को शामिल किया गया है। लोकतंत्र, न्यायप्रियता, समानता और समरसता सहित संवैधानिक मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता को केंद्र में रखा गया है। भारत आज प्रगति पथ पर अग्रसर है। लेकिन इस उन्नति में सबसे अहम आवश्यकता उस हिस्से की है जिसे लंबे समय से हाशिए पर रखा गया है। जब तक समाज का वह हिस्सा अपनी भूमिका का निर्वहन नहीं कर सकता तब तक वास्तविक उन्नति का सपना अधूरा ही रहेगा। दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, महिलाएं और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को दरकिनार करके, वास्तव में समतामूलक समाज की कल्पना अधूरी है।
2047 के विकसित भारत के सपने को साकार करने के लिए गांधी जी के 'अंतिम जन अर्थात समाज के 'अंतिम पंक्ति' के व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए ही हमें अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देना होगा। दलितों एवं वंचित वर्गों के विकास और उत्थान हेतु सुरक्षा तंत्रों की सशक्तिकरण की आवश्यकता है। बेरोजगारी, अशिक्षा व भूख से जूझ रहे इस वर्ग को विकसित भारत की मुख्यधारा की समुचित भागीदारी हेतु तैयार करना आवश्यक है।
हम सभी इस विचार से भिन्न नहीं हो सकते हैं कि स्वतंत्रता के साथ विकास विमर्श करने की आवश्यकता है। ताकि न्यायपूर्ण, समावेशी और सतत विकास सुनिश्चित किया जा सके। समाज को इसके मूल तत्वों पर पुनः केंद्रित करना होगा ताकि सामाजिक समरसता तथा सामाजिक समावेशन की भावना को बल प्रदान किया जा सके।
वर्तमान विशेषांक में देश के विभिन्न राज्यों से प्रबुद्ध लेखकों द्वारा शिक्षा, आर्थिक समता, महिला सशक्तिकरण, जाति, वर्ग, लिंग, धर्म पर आधारित समाज की सामाजिक स्थिति का वैज्ञानिक अध्ययन करते हुए विकसित भारत की संकल्पना पर केंद्रित गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत विशेषांक में प्रकाशित सभी शोध पत्रों में समाज के विभिन्न आयामों पर केंद्रित चिंतन व मनन किया गया है। जिसमें समाज के प्रबुद्ध वर्ग से लेकर युवाओं तक की भूमिका का उल्लेख किया गया है। इस विशेषांक में ऐसे लेखों को स्थान दिया गया है जो भारत को एक समतामूलक, शोषणविहीन और न्यायपूर्ण समाज बनाने की दिशा में एक सार्थक हस्तक्षेप प्रस्तुत करता है।
हमें इस बात पर सतत ध्यान देने की आवश्यकता है कि सामाजिक समरसता हेतु हमें संवैधानिक दायित्वों को समझने की आवश्यकता है। हमें केवल अपने अधिकारों की बात नहीं करनी है बल्कि अपने कर्तव्यों को भी आधार बनाकर आगे बढ़ना है। तभी हम एक समावेशी, समतामूलक, शोषण मुक्त और विमर्श प्रधान समाज के साथ सामाजिक सशक्तिकरण के विविध आयामों से संबंधित जागरूकता निर्माण की पहल करते हुए विकसित भारत की संकल्पना में बेहतर कार्य की दिशा में अग्रसर हो सकेंगे।
संपादक
डॉ. रोशन कुमार गोतम
सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष समाज कार्य विभाग
संस्था - श्री. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर - (छत्तीसगढ़)
श्री प्रेमकुमार गुर्जर
अध्यक्ष : सामाजिक सशक्तिकरण बहुउद्देशीय संस्था
दर्जा - (महाराष्ट्र)
वर्तमान समय में शासन उच्च शिक्षा मे गुणवत्तापूर्ण शोध के लिए शोधार्थियों को प्रोत्साहित कर रही है, किसी भी देश का समग्र विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है, नए – नए विचार, रचनात्मक सोच, समाज को सदैव नई ऊँचाइयों पर पहुंचाती हैं, हमारा ‘शोध उत्कर्ष’ भी इसी महत्वपूर्ण और गरिमापूर्ण कार्य को मूर्तरूप देने के लिए कृत संकल्पित है।
सामान्य तौर पर दलित,पिछडे,अल्पसंख्यक व गरीब सामान्य वर्ग में विविध विषयों के बहुत सारे युवा लेखक,लेखिका, शोध छात्र, छात्रा, शिक्षक हैं जिनको एक मंच प्रदान करना है, जिससे वो अपनी रचना धर्मिता को दुनियां के सामने प्रस्तुत कर सकें.युवाओं में शोध करने, कुछ नया करने की असीम क्षमता होती है लेकिन उस क्षमता को अभिव्यक्ति प्रदान करने का मंच नहीं मिलता, जिसके अभाव में प्रतिभा दब कर दम तोड़ देती है, युवा वर्ग सामाजिक परिवर्तन करने में अपनी अहम भूमिका निभा सकते है, घिसे-पिटे सामाजिक नियमों को बदल सकते हैं।